पजामा तंग है कुर्ता ढीला........., रेशमी शलवार कुर्ता जाली का......-इस तरह के अनेकों लोकप्रिय गीत आप रोज सुनते होंगे। इक्कीसवीं सदी में भारत कैसा होगा अपनी कविता में हास्य के लोकप्रिय रचनाकार अरुन जैमिनी एक कविता के अंश में कहते हैं कि-‘पाजामे में नाड़ा, गणित में पहाड़ा, तराजू में बट्टा और लडकियों का दुपट्टा ढूँढते रह जाओगे।‘ कितना अजीब सा लगता है कि जब कोई लड़का या लड़की अपने तंग परिधानों की वजह से बैठ भी नहीं पाते, दोड़ने में डर लगा रहता है कहीं कपड़े न फट जायें।
ये माना कि वस्त्रों को व्यक्तित्व का दर्पण कहा जाता है और वस्त्र व्यक्ति की मौलिक जरूरतों में से एक मुख्य जरूरत है। फिर भी यदि उस व्यक्तित्व को हम सलीके से सँवारें तो चार चाँद लग जाते हैं। लेकिन नहीं आज बालाओं की वेशभूषा ऐसी हो गयी है कि कोई भी एक नज़र देख ले तो मन में तुरंत कुत्सित विचार घर करने लगते हैं। दुराचार को बढाने में सिनेमा, नाच, अश्लील गीत जितने सहायक हो रहे हैं महिलाओं की वस्त्र सज्जा, पहनावा उससे कहीं अधिक है। नई पीढ़ी आज उन कपड़ों की ओर अधिक आकर्षित हो रहीं जो अत्यंत भड़कीले हों शरीर का अधिक से अधिक अंग प्रदर्शन करते हों।
पवित्रता और शालीनता की प्रतिमूर्ति समझी जाने वाली नारी जाति की मान्यता आज सभ्यता की परिधियों से निकल कर अपने शरीर के वस्त्र सिकोड़ती और तंग करती जा रही है शायद उन्हें यह नहीं मालूम कि तंग कपडों से जहाँ एक ओर शरीर के विभिन्न भागों में रक्त संचार अवरुद्ध होता है वहीं युवाओं के शरीर में कुत्सित भावनाओं का रक्त संचार बढ़ने लगता है, यही बात पुरुष वर्ग पर लागू होती है उनके पैंट और टीशर्ट शरीर से इतने चिपके रहते हैं कि विपरीत सेक्स पर उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा है—जब तक समाज आधुनिकता के संदर्भ में वेश विन्यास को महत्व देता रहेगा, तब तक न तो सही अर्थों में आधुनिक बन पायेगा, न सभ्य कहलाने का अधिकारी होगा ।
कुछ वैज्ञानिक कारण—डा. एलेन की जाँच के अनुसार शरीर को छूती हुयी युवक युवतियों की तंग पोशाकें उनके शरीर में रक्त, त्वचा, त्वक शोथ, विंटर इच, डर्मेटाइटिस जिस तेजी से बढ़ रही हैं उस स्थिति को देखते हुये कि लगता है कि आने वाले समय में त्वचागत रोगों की स्थिति भयावह होगी। इन तंग कपड़ों के यांत्रिक दबाव और शरीर की रगड़ से ही त्वचा रोग पैदा होते हैं। मिनी स्कर्ट और अन्य आधुनिक परिधानों के कारण शारीरिक विकास में बाधा तो होती ही है, मस्तिष्क में घबराहट और स्नायुविक तनाव बढता है। लड़कियों को मिनी स्कर्ट् के कारण सार्वजनिक स्थानों में एक टाँग के ऊपर दूसरी टाँग रख कर बैठना पडता है। अधिक क्रोसिंग के कारण एवडक्टर मसल्स सिकुड़ जाती है, जिससे कद छोटा हो जाने की संभावनायें बढ़ जाती हैं, इसलिये हमें ऐसे परिधानों से बचना चाहिये।
आज फैशन की बाढ में व्यक्ति जितने भड़्कीले और चट्कीले रंग हैं उनके कपड़े पहनना पसंद करता है। वह बुद्धि बल से नहीं अपितु इस तरीके से अन्य से अलग दिखने की कोशिश करता है। केलीफोर्निया के फार्म व्यूरो संघ की एक जाँच विज्ञप्ति के अनुसार जो तथ्य सामने आये हैं वे हैं कि ऐसे रंग सूर्य की किरणों को अवशोषित करते हैं जिससे उनमें और अधिक गर्मी बढ़ जाती है फिर ऐसे भड़कीले रंग मच्छर, मक्खी, कीट पतंगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं जो स्वास्थ्य के लिये अत्यंत हानि कारक है। मौसम के अनुसार हमें गर्मियों में सादा सफेद या हल्के रंग के कपड़ों का चयन करना चाहिये तथा सर्दियों में गहरे रंग की पोशाकें पहननी चाहिये।
तंग पेंट पहनना भी स्वास्थ्य के प्रतिकूल है। आज जींस जितनी लोकप्रिय हो रही है शायद ही कोई कपड़ा हो रहा होगा। जींस इतनी तंग होती है कि मूत्रवह संस्थान गत अनेक रोगों के हो जाने का भय सताने लग गया है।
आज इस सबको छोडने की बात तो नहीं की जा सकती लेकिन खाने और कपड़े का लक्ष्य शरीर की रक्षा करना है इसलिये लक्ष्य को सामने रखने की बात तो की ही जा सकती है। कपड़े हों तो ढीले हों जिसमें शरीर को सूर्य का ताप तथा हवा भली भाँति मिल सके। कपड़ों को पहन कर ऐसा न लगे कि हम कैद में आ गये। हमारा जीवन कपड़ों के लिये नहीं है अपितु कपड़े के लिये हम हैं।
यदि हमें त्वक रोगों तथा स्नायुविक दुर्बलता जैसे रोगों से बचना है तो ऐसी फैशन से स्वयं को रोकना पड़ेगा क्यों कि ऐसी आज्ञा हमारी संस्क़्रृति ही नहीं, विज्ञान भी नहीं देता।
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