चाल्स एन नडेल के अनुसार “भोजन की सामान्य मात्रा को बंद कर देना ही उपवास है।”
चरक कहते हैं- “किसी भी प्रकार के भोजन का किंचित मात्र अंश शरीर मे न पहुंचना लंघन है, उपवास उसी की उप शाखा है।“
महात्मा गांधी के अनुसार “अपने निकट के आत्मीय को सुधारने, उसे गलत काम करने से रोकने और उसमे पश्चाताप जागृत करने के लिये सत्याग्राही के अंतिम अस्त्र के रूप मे उपवास अचूक है।“
इस प्रकार उपवास नैतिक, भौतिक, आध्यात्मिक और संघर्षात्मक सिद्धियों तक के लिये किया जाता रहा है। वर्तमान समय में जब लोग पूरे दिन कुछ न कुछ खाते रहते हैं। सभ्यता और कब्ज का साथ हो गया है। अप्राकृतिक, अखाद्य तथा गरिष्ठ भोजन फैशन बन गया है, पाचन क्रिया अत्यंत आंतों के श्रम के कारण दुर्बल हो गयी है ऐसे में उपवास प्रक्रिया एक आवश्यक आवश्यकता बन गयी है।
महात्मा गान्धी ने एक स्थान पर लिखा है कि कब्ज में, खून की कमी में, बुखार आने पर, अपच, सिर दर्द, जोड़ों के दर्द, वायु के दर्द , शरीर में भारी पन, उदासी और चिंता में तथा बेहद खुशी में उपवास किया जाये तो डाक्टर के नुस्खों और पेटेंट दवाओं से बचत हो जायेगी।
बादी, मोटापा कम करने वालों के लिये तो उपवास से बढ़कर सरल तथा रामबाण उपाय कोई नही है। कैंसर, मोतीझरा, एपेंडीसाइटिस में लम्बे उपवास करना चाहिये। आत्मिक शांति तथा मानसिक आवेगों को दबाने मे भी उपवास का बहुत बड़ा योगदान है। क्रोध, शोक, घृणा आदि कुत्सित विचारों क उपवास से शमन होता है।
उपवासों की पहले से कोई निश्चित दिनों की संख्या निर्धारित नहीं है। यह तो मनुष्य की शारीरिक दशा तथा स्थिति पर निर्भर है। साधारण तथा जब तक स्वाभाविक भूख न लगे तब तक उपवास जारी रखना चाहिये। रोगों मे भी जब तक उसकी तीव्रता न समाप्त हो जाये तब तक उपवास करना चाहिये। बहुत से लोगों का मानना है कि कल यदि उपवास है तो हो सकता है शरीर कमजोर पड़ जाये इसलिये एक दिन पहले से वह ठूँस-ठूँस के भोजन करते हैं जब कि एसा कुछ नही है। एक दो दिन उपवास के पूर्व कोई विशेष सावधानी की आवश्यकता नही है मात्र हल्का तथा सुपाच्य भोजन ही ठीक है। परंतु यदि लम्बा उपवास रखना हो तो उससे पूर्व दो तीन दिन तक फलों के रसों पर रहना चाहिये ताकि शरीर मे मल ना रहे। उपवास शरीर को पुनः नया कर सके।
उपवास की अवधि समाप्त होने का सच्ची भूख लगना उसका सबसे बड़ा तथा अति महत्व पूर्ण लक्षण है। उपवास की अवधि समाप्त होने पर शरीर हल्का एवं फुर्तीला मालूम होता है यही समय होता है जब हम उपवास कर्ता के लिये उचित भोजन की व्यवस्था करें। इस सम्बन्ध मे एक प्रसिद्ध सूत्र है जो तीन-तीन दिन करके दस दिन के लिये है। रस-दूध-पानी-हल्का भोजन अर्थात पहले तीन दिन संतरा, अंगूर का रस, चौथे, पाँचवे और छठे दिन हल्का भोजन जैसे- दूध और डबलरोटी या सब्जी और रोटी का छिल्का देना चाहिये और फिर क्रमशः सामान्य भोजन पर ले आना चाहिये।
ये लोग उपवास न करें---
1. दुबले पतले व्यक्तियों को उपवास नहीं करना चाहिये क्योंकि उनकी रसादि धातुयें वैसे ही क्षीण होती हैं।
3. जिनकी पाचकाग्नि ठीक हों और यकृत फेंफड़े आदि ठीक कार्य कर रहे हों।
4. यदि रोगी क्षय रोग से पीड़ित हों या जिसमें जीवन शक्ति ह्रास इस सीमा तक हो गया हो कि वह पुर्ननिर्माण में असमर्थ हो उसे भी उपवास नहीं करना चाहिये।
5. शरीर की प्रकृति को बिना समझे ना समझी से उपवास नहीं करना चाहिये।
दरअसल उपवास एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसे सावधानी से करने से लाभ तथा असावधानी से करने पर घातक परिणाम हो सकते हैं। एक सप्ताह से अधिक दिनों का लम्बा उपवास कहा जाता है तथा एक सप्ताह से कम का छोटा उपवास कहा जाता है जीभ पर पड़ी हुयी पपड़ी और मैल, दुर्गन्धित वास, अस्वाद जीभ तथा खुलकर स्वाभाविक भूख लगना आदि लक्षण जब तक फिर प्रकट न हो जायें तब तक उपवास अपूर्ण तथा अधूरा रहता है।
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