स्तन पान में संकोच क्यों.......?

Saturday, June 18, 2011


इसी जगत में जो भी जैविक प्राणी जन्म लेता है वह चाहता है कि उसे जीने के सभी अधिकार मिलें। इसी प्रकार पेड़ पौधों के जीवन को ही ले लें, जिस पौधे को समुचित रूप से खाद, पानी, वायु, प्रकाश मिल जाता है वो तो जीवित रहते हैं जिन्हें इनमें से किसी की भी कमी हो जाती है वे ही नष्ट हो जाते हैं। इसीलिये कहा गया है कि नव जात शिशु का मूल आहार है दूध और शिशु के स्वास्थ्य की बुनियाद माँ के दूध पर ही निर्भर करती है। लेकिन आज के आधुनिक युग में अक्सर ये देखा गया है कि लडकियाँ जब पहली बार माँ बनती हैं तो ये समझती हैं कि अब हमारी सारी ज़िम्मेदारियाँ समाप्त हो गयीं जब कि ऐसा नहीं है, सही मायने में जिम्मेदारी तो शिशु के पैदा होने के बाद शुरू होती है। जो मातायें इस पहली जिम्मेदारी को अच्छी तरह निर्वाह कर लेती हैं वही मातायें आदर के योग्य होती हैं।

बहुत सी मातायें यह सोचती हैं कि बच्चे को दूध पिलाने से उनके शरीर की फिगर खराब हो जायेगी या उनके स्तन ढीले होकर लटक जायेंगे या उनके सौन्दर्य पर बुरा प्रभाव पड़ेगा या वे जल्दी ही प्रौढ़ दिखाई देने लगेंगी तो उनका ये सोचना नितान्त भ्रामक है। जरा सोचिये जिस बच्चे को 9 माह तक अपने पेट में रख कर बेडौल बनी रहने में गौरव अनुभव करती है, जन्म लेने के बाद उसे 6-7 माह अपना अमृत तुल्य दूध पिलाने से कतराती है? आखिर ऐसी विडम्बना क्यूँ ?

आचार्य सुश्रुत ने भी माता के दूध के गुणों का बखान करते हुये लिखा है कि---

नार्यास्तु मधुरं स्तन्यं कषायानुरसं गुरु ।

स्निग्धं स्थैर्यकरं शीतं चक्षुष्य बलवर्धनम ॥

सु0 सू0 अ0 45/57

स्तनपान से लाभ

· माँ का दूध बच्चे के लिये उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप होता है

· हमेशा शुद्ध, स्वादिष्ट व ताज़ा होता है जिससे लम्बे समय तक भी पान करने से कोई अरुचि नहीं होती क्यों कि इसमें स्वाभाविक रूप से मधुरता होती है।

· ये बच्चे के अनुकूल ताप पर उपलब्ध रहता है।

· बच्चा एक नन्हा वर्धनशील पौधा है। बच्चे के विकास के लिये कुछ निश्चित पदार्थों की आवश्यकता होती है जिनमें केल्शियम, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन आदि विशेष होते हैं। माँ का दूध ये तत्व बच्चे को तत्काल प्रदान करता है।

· माँ का दूध पूर्ण रूप से विसंक्रमित होता है, क्यों कि वह माँ के स्तन से सीधा बच्चे के मुँह में पहुँचता है और वायु मंडल का उससे सम्पर्क नहीं हो पाता।

· यह बच्चे को विभिन्न प्रकार की एलर्जियों से भी बचाता है।

· ये बच्चे की विभिन्न बीमारियों से भी रक्षा करता है जैसे श्वसन तंत्र के रोग तथा आँत की सूजन, आदि।

· ये माताओं में कैंसर, स्तन में फोड़े, निपिल में सूजन तथा मोटापे जैसी बीमरियों की संभावना कम कर देता है।

· बच्चे में भी स्थूलता, सूखे की बीमारी, दाँत में कीड़े आदि बीमारियाँ कम करता है।

· इससे माँ और बेटे के बीच स्वस्थ भावनात्मक सम्बन्ध विकसित होता है जो बच्चे को मानसिक सुरक्षा प्रदान करता है तथा विकास करता है।

· ये दो बच्चों के जन्म के बीच की दूरी बढ़ाने में भी सहायक है।

· आर्थिक द्रष्टि से भी यह उपयोगी है।

बच्चे के जन्म के एक घंटे के बाद ही उसे स्तन पान करा देना चाहिये। प्रारम्भ के तीन चार दिन तो बच्चे को बार बार स्तनों से लगाना चाहिये इससे स्तनों में ज्यादा से ज्यादा दूध उतर आता है। शिशु के जन्म के जन्म के तुरंत बाद जो स्तनों से दूध निकलता है उसे कोलेस्ट्रोम कहते हैं, ये हल्के पीले से रंग का होता है इसमें प्रोटीन, वसा तथा कार्बोहैड्रेट प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। शुरू शुरू में बच्चे को भूख के समय तथा रोने के समय दूध पिलाना चाहिये यदि आधी रात को भी जरूरी हो तो भी उसकी पूर्ति करें, इस तरह शिशु को कम से कम 6 माह तक तो स्तन पान कराना ही चाहिये। कुशल बाल रोग विशेषज्ञ बताते हैं कि मासिक धर्म के दौरान, बुखार, पेचिश, पीलिया आदि बीमारियों में भी मातायें बच्चे को दूध पिला सकती हैं, एक बात अवश्य ध्यान में रखें कि दूध पिलाते समय बच्चे को बीच बीच में डकार अवश्य दिलवा देनी चाहिये। माँ के दूध में अनेक एंटीबाडीज होते हैं, इसलिये माँ के बीमार होने पर भी बच्चे को दूध पिलाना हानिकारक नहीं है।

स्तनपान में सावधानियाँ

· स्तन पान कराते समय माँ को हर संभव सफाई का ध्यान रखना चाहिये।

· स्तन पान के समय माँ और बेटे को आमतौर पर शांत, आराम की अवस्था में रहना चाहिये।

· हर बार दूध पिलाते समय कम से कम एक स्तन अवश्य खाली कर ले।

· दुग्ध पान का समय 5 मिनट से आरम्भ कर के धीरे धीरे बढा कर 15-20 मिनट तक कर लें।

· ऐसी अवस्था में माँ को चाहिये कि अपने खान पान, सफाई पर विशेष ध्यान रखें, सामान्य से अधिक पौष्टिक भोजन, दूध, फल लें तथा भरपूर आराम करें।

· यदि दूध पिलाने के बाद भी स्तन भारी हो रहा है तो अतिरिक्त दूध को दबाकर बाहर निकाल देना चाहिये।

माताओं को भी लाभ

जो मातायें इस डर से कि शरीर का फिगर बिगड़ जायेगा, दूध नहीं पिलातीं उन्हें अनेक रोगों से ग्रस्त हो कर बेडौल होकर घूमते देखा है। स्तन पान महिला की शारीरिक आकृति को सँवारने का एक मात्र उपाय है। गर्भावस्था के समय शरीर में जो वसा की अतिरिक्त मात्रा जमा हो जाती है, उसका उपयोग स्तन पान द्वारा हो जाता है।

शिशु जन्म के तुरंत बाद बच्चे को दूध पिलाने से बच्चेदानी सख्त हो जाती है और रक्तस्राव बंद होने में मदद मिलती है इससे डिलीवरी के बाद महिला की शारीरिक स्थिति को भी सामान्य होने में सहायता मिलती है।

स्तन पान उत्तम गर्भ निरोधक है।

स्तन केंसर भी अधिकतर उन माताओं को होता है जो अपने बच्चे को दूध पिलाने में संकोच करती हैं। इससे उनके स्तनों में अवरोध के कारण गांठें पड़ जाती है, जो केंसर तथा अन्य प्रकार के रोगों को जन्म देती हैं। स्वाभाविक रूप से दूध आना बन्द हो जाये तो अलग बात है लेकिन दूध बनता रहे और बाहर निकलने के वजाय नाडियों में पड़ा-पड़ा सूखता रहे तो विकार तो उत्पन्न होगा ही।

रासायनिक जाँचें भी सिद्ध कर चुकी हैं कि शिशु की आयु बढ़ने के साथ-साथ उसकी पोषण आवश्यकतायें भी बढ़ती जाती हैं उसे नये-नये रासायनिक तत्वों की आवश्यकता होने लगती है, ये कमी माँ का दूध ही पूरा करता है किसी पशु या डिब्बे का दूध नहीं। गाय भेंस का दूध पचाने की क्षमता तो बच्चे में धीरे-धीरे विकसित होती है, आरम्भ में ही उसके पाचन तंत्र पर अनावश्यक दबाव नहीं डालना चाहिये।

प्राकृतिक तौर पर भी जरा सोचें तो पेट में भ्रूण का विकास माँ के शरीर को नुकसान पहुँचाये बिना

तो वैसे भी सम्भव नहीं होता। प्रसव से पहले का कष्ट, रक्तस्राव आदि में शरीर को कितना कष्ट उथाना पडता है उसके अनुपात में बच्चे को स्तन पान कराना तो नहीं के बराबर है। जिस बच्चे को जन्म देकर आप अपना ये जीवन सार्थक मानतीं हैं तो उसके विकास और पोषण में ये बाधा क्यों?

माँ का दूध बच्चे के लिये अमृत के समान होता है,


उसे प्रथम भोजन का पाठ तो माँ ही पढ़ाती है यदि वही अपने पाठ में आना कानी करने लगे तो उस बच्चे का भविष्य क्या होगा, शायद जीवन भर उपेक्षा का..............।

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शारीरिक एवं आत्मिक शुद्धि का सरलतम उपाय- उपवास...

बर्नार्ड मेकफेडेन का कहना है- उपवास का अर्थ ठोस और तरल प्रत्येक प्रकार के भोजन का
पूर्णतया त्याग करना है।

चाल्स एन नडेल के अनुसार भोजन की सामान्य मात्रा को बंद कर देना ही उपवास है।

चरक कहते हैं- किसी भी प्रकार के भोजन का किंचित मात्र अंश शरीर मे न पहुंचना लंघन है, उपवास उसी की उप शाखा है।

महात्मा गांधी के अनुसार अपने निकट के आत्मीय को सुधारने, उसे गलत काम करने से रोकने और उसमे पश्चाताप जागृत करने के लिये सत्याग्राही के अंतिम अस्त्र के रूप मे उपवास अचूक है।

इस प्रकार उपवास नैतिक, भौतिक, आध्यात्मिक और संघर्षात्मक सिद्धियों तक के लिये किया जाता रहा है। वर्तमान समय में जब लोग पूरे दिन कुछ न कुछ खाते रहते हैं। सभ्यता और कब्ज का साथ हो गया है। अप्राकृतिक, अखाद्य तथा गरिष्ठ भोजन फैशन बन गया है, पाचन क्रिया अत्यंत आंतों के श्रम के कारण दुर्बल हो गयी है ऐसे में उपवास प्रक्रिया एक आवश्यक आवश्यकता बन गयी है।

महात्मा गान्धी ने एक स्थान पर लिखा है कि कब्ज में, खून की कमी में, बुखार आने पर, अपच, सिर दर्द, जोड़ों के दर्द, वायु के दर्द , शरीर में भारी पन, उदासी और चिंता में तथा बेहद खुशी में उपवास किया जाये तो डाक्टर के नुस्खों और पेटेंट दवाओं से बचत हो जायेगी।


बादी, मोटापा कम करने वालों के लिये तो उपवास से बढ़कर सरल तथा रामबाण उपाय कोई नही है। कैंसर, मोतीझरा, एपेंडीसाइटिस में लम्बे उपवास करना चाहिये। आत्मिक शांति तथा मानसिक आवेगों को दबाने मे भी उपवास का बहुत बड़ा योगदान है। क्रोध, शोक, घृणा आदि कुत्सित विचारों क उपवास से शमन होता है।

उपवासों की पहले से कोई निश्चित दिनों की संख्या निर्धारित नहीं है। यह तो मनुष्य की शारीरिक दशा तथा स्थिति पर निर्भर है। साधारण तथा जब तक स्वाभाविक भूख न लगे तब तक उपवास जारी रखना चाहिये। रोगों मे भी जब तक उसकी तीव्रता न समाप्त हो जाये तब तक उपवास करना चाहिये। बहुत से लोगों का मानना है कि कल यदि उपवास है तो हो सकता है शरीर कमजोर पड़ जाये इसलिये एक दिन पहले से वह ठूँस-ठूँस के भोजन करते हैं जब कि एसा कुछ नही है। एक दो दिन उपवास के पूर्व कोई विशेष सावधानी की आवश्यकता नही है मात्र हल्का तथा सुपाच्य भोजन ही ठीक है। परंतु यदि लम्बा उपवास रखना हो तो उससे पूर्व दो तीन दिन तक फलों के रसों पर रहना चाहिये ताकि शरीर मे मल ना रहे। उपवास शरीर को पुनः नया कर सके।

उपवास की अवधि समाप्त होने का सच्ची भूख लगना उसका सबसे बड़ा तथा अति महत्व पूर्ण लक्षण है। उपवास की अवधि समाप्त होने पर शरीर हल्का एवं फुर्तीला मालूम होता है यही समय होता है जब हम उपवास कर्ता के लिये उचित भोजन की व्यवस्था करें। इस सम्बन्ध मे एक प्रसिद्ध सूत्र है जो तीन-तीन दिन करके दस दिन के लिये है। रस-दूध-पानी-हल्का भोजन अर्थात पहले तीन दिन संतरा, अंगूर का रस, चौथे, पाँचवे और छठे दिन हल्का भोजन जैसे- दूध और डबलरोटी या सब्जी और रोटी का छिल्का देना चाहिये और फिर क्रमशः सामान्य भोजन पर ले आना चाहिये।

ये लोग उपवास न करें---

1. दुबले पतले व्यक्तियों को उपवास नहीं करना चाहिये क्योंकि उनकी रसादि धातुयें वैसे ही क्षीण होती हैं।

2. छोटे बच्चों को लम्बे उपवास नहीं करना

3. जिनकी पाचकाग्नि ठीक हों और यकृत फेंफड़े आदि ठीक कार्य कर रहे हों।

4. यदि रोगी क्षय रोग से पीड़ित हों या जिसमें जीवन शक्ति ह्रास इस सीमा तक हो गया हो कि वह पुर्ननिर्माण में असमर्थ हो उसे भी उपवास नहीं करना चाहिये।

5. शरीर की प्रकृति को बिना समझे ना समझी से उपवास नहीं करना चाहिये।

दरअसल उपवास एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसे सावधानी से करने से लाभ तथा असावधानी से करने पर घातक परिणाम हो सकते हैं। एक सप्ताह से अधिक दिनों का लम्बा उपवास कहा जाता है तथा एक सप्ताह से कम का छोटा उपवास कहा जाता है जीभ पर पड़ी हुयी पपड़ी और मैल, दुर्गन्धित वास, अस्वाद जीभ तथा खुलकर स्वाभाविक भूख लगना आदि लक्षण जब तक फिर प्रकट न हो जायें तब तक उपवास अपूर्ण तथा अधूरा रहता है।

शाकाहार; लाभ ही लाभ......





आज विश्व के हर कौने से वैज्ञानिक व डाक्टर यह चेतावनी दे रहे हैं कि माँसाहार कैंसर आदि असाध्य रोगों को देकर आयु को क्षीण करता है और शाकाहार अधिक पौष्टिकता व रोगों से लड़ने की क्षमता प्रदान करता है, फिर भी मानव यदि अंधी नकल या आधुनिकता की होड में माँसाहार कर के अपना सर्वनाश करे तो ये उसका दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।

जीव या पशु संरचना पर ध्यान देने पर हम देखते हैं कि सर्वाधिक शक्तिशाली, परिश्रमी, व अधिक सहनशीलता वाले पशु जो लगातार कई दिन तक काम कर सकते हैं, जैसे हाथी, घोडा, बैल, ऊँट, आदि सब शाकाहारी होते हैं। इग्लेंड में परीक्षण करके देखा गया है कि स्वाभाविक माँसाहारी शिकारी कुत्तों को भी जब शाकाहार पर रखा गया तो उनकी बर्दाश्त शक्ति व क्षमता में वृद्धि हुई।

अफ्रीकन रिसर्च फाउंडेशन के डा0अन्ना स्पोरी के अनुसार मसाई जनजाति के लोग जो माँसाहार करते हैं वे यदि दही खाते हैं तो उनका कोलेस्ट्रोल कम हो जाता है।

शाकाहारी भोजन के गुणों को जानकर अब पाश्चात्य देशों में शाकाहार आन्दोलन तेज हो रहा है। अमेरिका में सलाद बार अत्यधिक लोकप्रिय हो रहे हैं, जहाँ से ग्राहक सलाद की भरी हुई प्लेटें व बन्द डिब्बे घर ले जा सकते हैं।

सांध्य टाइम्स, नई दिल्ली 19 फरवरी 1990; के अनुसार भोजन पर अनुसन्धान कर रहे अमेरिका के वेज्ञानिकों ने वर्षों की खोज के बाद, फलों, सब्जियों, दूध और खाद्यान्नों में पाये जाने वाले पोषक तत्वों का पता लगा लिया है और भोजन से ही कैंसर, हृदयरोग आदि असाध्य रोगों की चिकित्सा की दिशा में काम कर रहे हैं। कई डाक्टरों ने तो सलाह दी है कि अंगूर, पपीता, आम, खरबूजा, टमाटर, हरी पत्तेदार सब्जियाँ खाने से भोजन की नली का केंसर होने की संभावना कम हो जाती है। केंसर का एक कारण माँसाहार भी है। दूध पीने से आँत के केंसर से बचा जा सकता है। जो महिलायें शाकाहारी और रेशेदार भोजन करती हैं उन्हें स्तन केंसर नहीं होता। हावर्ड के एक अध्ययन में पशु माँस और गर्भाशय केंसर में सम्बन्ध स्थापित किया गया है।

जर्मनी की इंस्टीट्यूट आफ सोशल मेडिसन एंड एपीडीमिओलोजी द्वारा वर्ष 1985 में प्रारम्भ किये गये सर्वेक्षण की अब तक की रिपोर्ट के अनुसार शाकाहारियों के रक्त में यूरिक एसिड की मात्रा कम होती है, उनके गुर्दे बेहतर कार्य करते हैं, रक्तचाप सामान्य, आदर्श कोलेस्ट्रोल सीमा में रहता है। एसे व्यक्तियों का प्रतिशत माँसाहारियों की अपेक्षा बहुत अधिक रहता है। शाकाहार उन्हें स्वस्थ और नीरोग बनाता है।

ग्वालियर के दो शोधकर्ताओं, डा0 जसराज सिंह और सी0के0 डेवास ने ग्वालियर जेल के 400 बन्दियों पर शोध कर ये बताया कि 250 माँसाहारियों में से 85% चिड़चिड़े स्वभाव के व झगड़ालू निकले जब कि शेष 150 शाकाहारी बन्दियों में से 90% शांत स्वभाव और खुश मिजाज थे। अकेले अमरीका में 40000 से अधिक केस प्रति वर्ष ऐसे आते हैं जो रोग ग्रस्त अन्डे व माँस खाने से होते हैं।

सामान्य तौर पर एक बात जानने की कोशिश करें कि जब पशु बूचड़खाने में कसाई के द्वारा अपनी मौत को पास आते देखता है तो वह डर और दहशत से काँप उठता है। मृत्यु को समीप भाँप कर वह एक दो दिन पहले से ही खाना पीना छोड़ देता है। डर व घबराहट में उसका कुछ मल बाहर निकल जाता है। मल जब खून में जाता है तो खून जहरीला व नुकसान दायक बन जाता है। मौत से पहले नि;सहाय पशु आत्म रक्षा के लिये पुरुषार्थ करता है, छटपटाता है। पुरुषार्थ बेकार होने पर उसका डर, आवेश बढ़ जाता है। गुस्से से आँखें लाल हो जाती हैं, मुँह में झाग आ जाते हैं, ऐसी अवस्था में उसके अन्दर एक पदार्थ एड्रीनलिन उत्पन्न होता है जो उसके रक्तचाप को बढ़ा देता है व उसके माँस को जहरीला बना देता है। जब मनुष्य वह माँस को खाता है तो उसमें भी एड्रीनलिन प्रवेश कर उसे घातक रोगों की ओर धकेल देता है। एड्रनलीन के साथ जब क्लोरिनेटेड हाइड्रो कार्बन लिया जाता है तब तो यह हार्ट अटेक का गंभीरतम खतरा उत्पन्न कर देता है।

जर्मनी के प्रोफेसर एग्नरबर्ग का मानना है कि अंडा 51.83% कफ पैदा करता है। वह शरीर के पोषक तत्वों को असंतुलित कर देता है।

अमेरिका के डा0 ई0बी0एमारी तथा इग्लेंड के डा0 इन्हा ने अपनी विश्व विख्यात पुस्तकों में साफ माना है कि अंडा मनुष्य के लिये ज़हर है।

इग्लेंड के डा0 आर0 जे0 विलियम का निष्कर्ष है कि सम्भव है अंडा खाने वाले शुरू में अधिक चुस्ती-फुर्ती भले ही अनुभव करें किंतु बाद में उन्हें हृदय रोग, एक्ज़ीमा, लकवा, जैसे भयानक रोगों का शिकार हो जाना पड़ता है।

माँसाहार जिन असाध्य रोगोंको जन्म देता है उस पर अन्य ताज़ा खोजों के परिणाम निम्न हैं

· रक्त् वाहिनियों की भीतरी दीवारों पर कोलेस्ट्रोल की तहों का जमना हृदयरोग तथा उच्च रक्त चाप का मुख्य कारण है। कोलेस्ट्रोल का सर्वाधिक प्रमुख स्रोत अंडा है फिर माँस, मलाई, मक्खन और घी होते हैं।

· मिर्गी (एपीलेप्सी)यह संक्रमित माँस व बगैर धुली सब्जियां खाने से होता है।


· आंतों का अल्सर, एपेन्डीसाइटिस, आंतों और मलद्वार का कैंसर--ये भी शाकाहारियों की अपेक्षा माँसाहारियों में अधिक होते हैं।

· गुर्दे की बीमारियाँअधिक प्रोटीन युक्त भोजन गुर्दे खराब करता है। शाकाहारी भोजन फैलावदार व पेलेटेविल होने से पेट जल्दी भरता है अत:उससे मनुष्य आवश्यकता से अधिक प्रोटीन नहीं ले पाता है जब कि माँसाहार से आसानी से आवश्यकता से अधिक प्रोटीन खाया जाता है।

· संधिवात, गठिया व अन्य वात रोगमाँसाहार खून में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ाता है जिसके जोडों पर जमाव होने के कारण ये रोग उत्पन्न होते हैं। ये देखा गया है कि माँस, अंडा, चाय, काफी आदि छोड-ने पर इस प्रकार के रोगियों को लाभ पहुँचा।

· रक्त धमनियों का मोटा होनाइसका कारण भोजन में पोलीसेच्युरेटेड फेट, कोलेस्ट्रोल व केलोरीज का आधिक्य है। माँसाहारी भोजन में इन पदार्थों की अधिकता रहती है जब कि शाकाहारी भोजन में बहुत कम। सब्जी, फल इत्यादि में ये पदार्थ न के बराबर होते हैं। अत: शाकाहारी भोजन इस रोग से बचाने में सहायक है।

· कैंसरयह जानलेवा रोग माँसाहरियों की अपेक्षा शाकाहारियों में बहुत कम पाया जाता है।

· आंतों का सड़नाअंडा, माँस आदि खाने से पेचिश, मंदाग्नि आदि बीमारियाँ घर कर जाती हैं, आमाशय कमज़ोर हो जाता है व आंतों में सड़न होने लगती है।

· त्वक रोग, मुहाँसे आदित्वचा की रक्षा के लिये विटामिन ए का सर्वाधिक महत्व है जो गाजर, टमाटर, हरी सब्जियों आदि में ही बहुतायत में होता है, यह शाकाहारी पदार्थ जहाँ त्वचा की रक्षा करते हैं वहीं माँस, अंडे, शराब आदि त्वचा रोगों को बढावा देते हैं।

· अन्य रोगजैसे माइग्रेन, इंफेक्शन से होने वाले रोग, स्त्रियों के मासिक धर्म सम्बन्धी रोग आदि भी माँसाहारियों में अधिक पाये जाते हैं।

सारांश यह है कि जहाँ शाकाहारी भोजन प्राय: प्रत्येक रोग को रोकता है वहीं माँसाहारी भोजन प्रत्येक रोग को बढावा देता है। शाकाहार आयु बढ़ाता है तो माँसाहार आयु घटाता है।

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शराब... कितनी खराब.........




दो दोस्त बहुत दिनों बाद मिले, कुशलता पूछ्ने पर पहले दोस्त ने कहा क्या बताऊँ यार,आजकल मेरी तबियत बहुत खराब चल रही है, खाँसी का रोग ऐसा लगा है कि जाने का नाम ही नहीं लेता।दूसरे दोस्त ने सहानुभूति प्रकत करते हुए कहा-ऐसा है तो एक काम कर, तू रोज सुबह शाम 2-2 ढक्कन शराब पी लिया कर, तेरी खाँसी ठीक हो जायेगी। पहले दोस्त ने आश्चर्य चकित होकर कहा- क्या शराब पीने से सचमुच मेरी खाँसी चली जायेगी? दूसरे दोस्त ने तुरंत हताश होकर कहा- हाँ यार, जिस शराब के पीने से मेरी जमीन जायदाद चली गयी, क्या तेरी खाँसी नहींजायेगी।

यदि हम वैचारिक और वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से सोचें तो कई रोंगटे खड़े करने वाले तथ्य सामने आ जाते हैं। आयुर्वेद में कहा भी है

बुद्धि लुम्पति यद्द्रव्यं मदकारी तदुच्य्ते

अर्थात् जो वस्तु बुद्धि का नाश कर दे वही मदकारी कहलाती है।

W.H.O. की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि शराब की बोतल में एक माँस का टुकढ़ा डाल देंतो वह गल कर कुछ ही देर में रेशे-रेशे हो जाता है। इसी प्रकार रक्त में जब एल्कोहल का जमाव 0.2 से 0.5% हो जाता है तो शराबी व्यक्ति की तुरंत मृत्यु हो जाती है। हमारे शरीर का स्नायु तंत्र सक्रिय रहे इसलिये विटामिन बी कोम्प्लेक्स अति आवश्यक तत्व है। शराब के प्रयोग से इसके उत्पादन क्षमता में कमी आ जाती है परिणाम स्वरूप स्नायुतंत्र अपनी क्षमता खो देता है। पक्षाघात जैसी बीमारियाँ इसी स्नायुतंत्र की दुर्बलता के कारण होती हैं।

शराब के कारण सबसे अधिक प्रभावित हमारा पाचन तंत्र होता है। एल्कोहल पेट में पहुँचते ही पाचक रसों का स्राव होना कम हो जाता है, जिससे पाचन क्रिया कम तथा वायु विकार बढ जाता है तथा रक्त बनने की क्षमता भी कम हो जाती है। जिगर हमारे शरीर में एक प्रमुख अंग है। शराब के निरंतर सेवन से, ये भी काम करना बंद कर देता है परिणाम स्वरूप पीलिया हो जाता है,उल्टियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं और उस समय शरीर में पानी की कमी होने से व्यक्ति मृत्यु से समझौता करने लगता है। शराबी व्यक्ति मानसिक द्रष्टि से एक ओर सनकी, विक्षिप्त रहने लगता है वहीं शारीरिक द्रष्टि से उसका निरंतर वजन घटने लगता है, भूख मरने लगती है।


मैसाचुसेट्स जनरल हास्पीटल के एक सर्वेक्षण के अनुसार, शराब पीने वालों में ट्राईग्लिसराइड्स बढ़ा हुआ हो तो उसे हृदय का दौरा कभी भी, किसी भी समय पड़ सकता है। रक्त में प्लेट्लेट्स की संख्या भी कम हो जाती है जिससे खून का थक्का बनने की सम्भावना अधिक हो जाती है।

महर्षि चरक के अनुसार शराब की प्रकृति-लघु, उष्ण, तीक्ष्ण, सूक्ष्म अम्ल कारक, व्यवायि,रुक्ष, विकाशी एवम विशद होती है। उष्णता के कारण मद्य पित्त वर्धक होता है, तीक्ष्णता से मन की स्फूर्ति नष्ट करने वाला, विशद होने के कारण वात प्रकोपक, तथा कफ शुक्र को नष्ट करने वाला होता है। रुक्षता के कारण वायु बढ़ाता है, व्यवायिक होने कारण मानसिक उत्फुल्लता एवम कामोत्तेजना बढ़ती है, विकाशी होने से सारे शरीर में फैल कर ओज नष्ट करता है। अम्ल गुण के कारण अजीर्ण उत्पन्न करने वाला होता है, इसका प्रभाव, मन, बुद्धि और इन्द्रियों पर पड़ता है और वो संतुलन खो बैठती हैं इसलिये मनुष्य हिंसक, क्रूर, अपराधी तथा उत्त्पाती बन जाता है।

कैलीफोर्नीया विश्वविद्यालय के मनो चिकित्सक गेलर्ड एलीसन ने शराब का प्राणियों पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन कर बताया कि यह प्रवृत्ति आनुवांशिक नहीं है अपितु मनुष्य सामाजिक कुप्रचलनों से प्रभावित होकर इसका शिकार बन जाता है। उनके एक प्रयोग के आधार पर चूहों के सामने पानी और शराब दोनों अलग-अलग रखे गये। कुछ दिनों बाद देखा कि चूहों ने पानी कम और शराब को अधिक पसंद किया। शराबी चूहे अनेक प्रकार के दुराचरण करने लगे, चिड़चिड़े तो हुये ही साथ ही नींद न आने की बीमारी उन्हें लग गयी। परिणामत: शराब न पीने वाले चूहों की बिरादरी उन शराबियों को अपमानजनक एवं घृणास्पद द्रष्टि से देखने लगी और उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि एल्कोहल के शिकार कई मृत व्यक्तियों के जब शव परीक्षण किये गये तो उनकी डिम्ब ग्रंथियों के सभी ऊतक पूरी तरह नष्ट हो गये हैं ऐसा पाया गया। प्रोस्टेट ग्लेंड की सूजन तथा नपुंसकता तो आम बात है। जिन गर्भवती महिलाओं ने एल्कोहल का सेवन किया उनके बच्चे विकलांग पैदा हुये। आजकल तो पाश्चात्य देशों की देखा देखी महिलाओं में भी मद्यपान की प्रवृत्ति बढती जा रही है। विश्व में सर्वाधिक नशे की शिकार फ्रांस की महिलायें हैं। इस संदर्भ में सोवियत वैज्ञानिकों का अध्ययन बताता है कि जो पति पत्नी शराब के नशे में धुत्त होकर संतानोत्पत्ति क्रम करते हैं वे कभी स्वस्थ शिशु को जन्म नहीं दे सकते, इनसे जन्मे शिशुओं का आई.क्यू.80 से भी कम होता है जब कि सामान्य का 100 से अधिक होता है।

ये सारी बातें स्पष्ट करती हैं कि शराब कोई अच्छा पेय नहीं है वरन स्वास्थ्य की दुश्मन है जो भी उससे बच जाये वह बुद्धिमान, जो ना बच पाये वह हत भागी ही कहा जायेगा।

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